Sunday 29 March 2015

गिले शिकवे gile shikwe poem by "guroo"



सारे ही गिले-शिकवे मेरी झोली में आ बैठे
जिसको पा नहीं सकते हम उसको ही चाह बैठे
मालूम था हमे अंजाम दिल्लगी का पहले से ही
न जाने क्या दिल में आया कि फिर भी दिल लगा बैठे

हम किसी और की जागीर को अपना समझ बैठे
अपने हिस्से की खुशियों भी उनपर लूटा बैठे
यहाँ खुद की खुशी और ग़म का ठीकाना नहीं था
उसे सारी उम्र हँसाने का ठेका उठा बैठे

मोहब्बत छोड़कर हम तो इबादत करने लगे थे
उसके एक आंसू से बहुत डरने लगे थे
मुझको बदलने की खुदा तक में न हिम्मत थी
पर उसके एक बार कहने पर हम खुदको बदलने लगे थे

सारे ही गीले शिकवे खुदा क्यों मुझको देता है
किसी और का होकर भी वो मेरे दिल में रहता है
मुझे धोखे में रखकर लाख झुठ बोले चाहे
इतना काफी है दिल से ना चाहे पर जुबान से अपना कहता है


                                               “गुरू”