मैं सबका मेरा कोई नही....
अक्सर थककर
छोड़कर दफ्तर
मैं आ जाता हूँ घर
ये सोचकर
कि कोई मेरा अपना मिलेगा यहाँ
पर मिलता नही
मैं सबका,,,मेरा कोई नही।।।
मेरे रंग में रँगकर रहने वाली मेरी परछाई
बुरे दौर में वो भी साथ ना आई
गुस्सा होकर
रो कर
भाव-विभोर कर देती है
कुछ मैं टूटा होता हूँ
कुछ वो कमज़ोर कर देती है...
जिसको समझो ताकत
बन जाती है वही कमज़ोरी नई
मैं सबका मेरा कोई नही।।
रोते चेहरों के साथ निकलती सुबह
रोज़ झगड़ों के साथ ढल जाती है
शायद मेरे ही कदम मनहूस हैं गुरू
जहां जाता हूँ उदासी बिखर जाती हैं
रोज़ बन्द होती ज़रूर हैं आँखें, मगर सोई नही
मैं सबका,मेरा कोई नही
मेरी ज़िंदगी भी मुझसे तंग सी है
खुशियाँ तो हैं, मगर बेरंग सी हैं
इस से अच्छा होता कि मुझसे वो बंधती ही ना
वो मेरी वजह से यूँ बिलखती तो ना
उसने खंज़र चलाये हैं रूह पर मेरी,रोई नही
मैं सबका,,,,,,,मेरा कोई नही
यूँ मनमर्ज़ी से रिश्ते निभे तो क्या बात है
मैं उसकी मर्जी से उसके साथ हूँ,वो अपनी मर्ज़ी से मेरे साथ है
सबके होने से जीवन मे खालीपन ना होता
यूँ तन्हा बैठकर घर की चोकठ पर मैं ये सब लिखता ना होता
मगर यही जिंदगी है ,,,भले रुसवाइयों से भरी है
यहाँ सबकी झोली में कहाँ खुशियां पड़ी हैं
वो पहले के वायदे वो अब भूल गये
ये न कहना,वो न कहना मेरा कहा वो सब भूल गए
उनकी भूली बातें भी मुझे याद रही
मैं सबका,,,,मेरा कोई नही,,,,