Thursday 20 October 2022

ज़रूरी था ….Zaruri tha….a poem from “Guroo”

 मेरे ही संग खट्टे-मीठे ख़्वाब का बुनना ज़रूरी था 

भीड़ भरी दुनिया में,क्या मुझे ही चुनना ज़रूरी था 


ग़र ज़हर थी तुम तो ज़हर सा बनकर ही रहती 

मिश्री सा मीठा बनकर,क्या मुझमें घुलना ज़रूरी था


मैंने सालों तक ख़ुद को परखा है,तुझे भूलना नामुंकिन है 

ख़ुद को परखने के लिए,इस राज़ का खुलना ज़रूरी था


तेरे महँगे फ़ोन की ब्लॉकलिस्ट में नंबर मेरा सेव पड़ा है 

दूसरों से तेरी रिकॉर्डिंग माँगे,आवाज़ सुनना ज़रूरी था 


राह अलग-चाह अलग,जब अलग-अलग जीना मरना

लाख सितम के बाद तेरा ,क्या छत पे दिखना ज़रूरी था


“गुरु” ने साँचा बनकर के,क़ीमती हीरे सा सँभाला सदा तुम्हें 

चोरी छिपकर ,बाज़ारू बनकर बिकना क्या ज़रूरी था


                                                                               “गुरु”