रातों की नींद में ख़ुद को बेक़रार नहीं करता
दिन के उजाले में मेरा इंतज़ार नहीं करता
मेरा महबूब मुझे पहले सा प्यार नहीं करता
पहले की तरह शाम को छत पर मुझसे नहीं आता
न इशारे करता,न नाराज़ होकर ग़ुस्से में आँखें दिखाता
मुझसे मिलने के लिए अब सोलह शृंगार नहीं करता
मेरा महबूब मुझे पहले सा प्यार नहीं करता
उसकी ज़िंदगी में था,अब ख़्वाबो तक में आता ही नहीं
पूछने को मेरी तबीयत अब वो हाथ उठाता ही नहीं
मेरा होकर भी वो मुझपर नहीं मरता
मेरा महबूब मुझे पहले सा प्यार नहीं करता
वो कभी मुझे देखने के लिए मेरी गली के चक्कर काटता था
धोखा देकर मेरा प्यार,ग़ैरों के दामन में बाँटता था
गिर गया नज़रों से जो कभी दिल में बैठा रहा करता
मेरा महबूब मुझे पहले सा प्यार नहीं करता…..
“गुरू”
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